Aaj ka Panchang (आज का पंचांग), 26 November 2025: आज है स्कंद षष्ठी व्रत, इस समय रहेगा राहुकाल, जानें शुभ-अशुभ मुहूर्त

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Posted On:Wednesday, November 26, 2025

Aaj Ka Panchang 26 November 2025: नमस्ते! द्रिक पंचांग और अन्य स्रोतों के अनुसार, 26 नवंबर 2025, मार्गशीर्ष माह के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि का विस्तृत पंचांग इस प्रकार है:

पंचांग- 26.11.2025

युगाब्द - 5126
संवत्सर - सिद्धार्थ
विक्रम संवत् -2082
शाक:- 1947
ऋतु __ हेमन्त
सूर्य __ दक्षिणायन
मास __ मार्गशीर्ष
पक्ष __ शुक्ल पक्ष
वार __ बुधवार
तिथि - षष्ठी 24:01:21
नक्षत्र श्रवण 25:31:54
योग वृद्वि 12:41:25
करण कौलव 11:33:06
करण तैतुल 24:01:21
चन्द्र राशि - मकर
सूर्य राशि - वृश्चिक

🚩🌺 आज विशेष 🌺🚩
👉🏻 स्कन्द षष्ठी

🍁 अग्रिम पर्वोत्सव 🍁

👉🏻 मोक्षदा एकादशी / गीता जयंती/ व्यतिपात पुण्यम्
01/12/25 (सोमवार)
👉🏻 व्यंजन द्वादशी / प्रदोष व्रत
02/12/25 (मंगलवार)
👉🏻 सत्य पूर्णिमा व्रत
04/12/25 (गुरुवार)

🕉️🚩 यतो धर्मस्ततो जयः🚩🕉

*सुदामा का तिल का दान – सच्ची भक्ति का प्रतीक*
💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐

द्वारका का स्वर्ण महल उस दिन कुछ अलग ही चमक रहा था। हवाओं में सुगंध थी, वातावरण में संगीत था, पर कृष्ण का मन बेचैन था।
वे बार-बार महल की बालकनी से बाहर झाँकते — जैसे किसी प्रिय के आने की प्रतीक्षा हो।

रुक्मिणी ने मुस्कुराते हुए पूछा,
“प्रभु! आज आप इतने अधीर क्यों हैं?”

कृष्ण ने मंद मुस्कान दी,
“रुक्मिणी, आज मेरा सखा सुदामा आ रहा है। वही सुदामा, जिसने मेरे साथ गुरुकुल में भी भूख बाँटी थी, ठंड में काँपते हुए भी अपना वस्त्र मुझे ओढ़ाया था।”

रुक्मिणी विस्मित हुई — “वह गरीब ब्राह्मण सुदामा? जो उजाड़ गाँव में कुटिया में रहता है?”

कृष्ण बोले, “रुक्मिणी, वही सुदामा मेरे जीवन की सबसे बड़ी संपत्ति है।”

---

दूसरी ओर, दूर एक छोटे से गाँव में सुदामा अपनी पत्नी के साथ कुटिया में बैठे थे। उनके घर में न अन्न था, न वस्त्र, न धन।
पत्नी ने कहा,
“स्वामी, सुना है आपका मित्र द्वारका का राजा है — भगवान श्रीकृष्ण स्वयं!
क्या आप उनके पास नहीं जा सकते? शायद वे हमारी दरिद्रता दूर कर दें।”

सुदामा हँसे — “देवी, मित्रता भिक्षा नहीं माँगती। मैं कृष्ण से कुछ माँगने कैसे जाऊँ?”

पत्नी ने आँसुओं से कहा,
“स्वामी, मैं नहीं कहती कुछ माँगिए, पर अपने सखा से मिलने तो जाइए। इतने वर्षों से आपने उन्हें देखा भी नहीं।”

सुदामा ने सहमति में सिर हिलाया — “ठीक है, जाऊँगा। पर खाली हाथ कैसे जाऊँ?”

पत्नी ने मिट्टी के छोटे पात्र में से मुट्ठीभर *तिल* निकाले।
“यही ले जाइए, हमारे पास बस यही है। यह तिल ही मेरा सारा प्रेम है आपके और उनके लिए।”

सुदामा नंगे पाँव चल पड़े द्वारका की ओर। उनके पैरों में छाले थे, शरीर पर फटे वस्त्र, पर मन में एक ही ज्योति थी — अपने कृष्ण से मिलने की।
द्वारका पहुँचे तो स्वर्ण द्वार देखकर स्तब्ध रह गए। पहरेदारों ने रोक लिया —
“कौन हो तुम?”

सुदामा ने नम्रता से कहा,
“मैं द्वारकाधीश का मित्र हूँ... सुदामा ब्राह्मण।”

पहरेदार हँस पड़े — “राजा का मित्र? यह फटेहाल ब्राह्मण?”

लेकिन जैसे ही कृष्ण को समाचार मिला, वे दौड़ते हुए बाहर आए।
सिंहासन छोड़कर, नंगे पाँव, सुदामा की ओर भागे।

सुदामा को देखते ही कृष्ण ने उन्हें गले लगा लिया।
आँखों से आँसू बह निकले —
“सखा! तूने इतनी देर क्यों लगा दी?”

महल में सब मौन हो गए। द्वारका के देवता समान राजा एक गरीब ब्राह्मण के पैरों को धो रहे थे!
रुक्मिणी स्वयं उनका स्वागत कर रही थीं।

कृष्ण ने प्रेमपूर्वक कहा,
“सखा, कुछ लाया है मेरे लिए?”

सुदामा झिझके — “कुछ नहीं, प्रभु... बस थोड़े से तिल लाया हूँ, वह भी पत्नी ने जबरन दिए हैं।”

कृष्ण ने हँसकर तिल का पोटली ली, और प्रेम से उसमें से एक मुट्ठी मुँह में डाल ली।
फिर बोले,
“सखा, यह तिल नहीं, यह तुम्हारा प्रेम है। इससे बढ़कर मुझे और क्या चाहिए?”

रुक्मिणी ने रोकना चाहा, “प्रभु, वह तो सूखा तिल है...”
कृष्ण बोले, “रुक्मिणी, यह तिल मेरे सखा के हृदय के फूल हैं — इनसे बढ़कर कोई प्रसाद नहीं।”

रातभर कृष्ण और सुदामा पुरानी यादों में खोए रहे।
गुरुकुल की बातें, वह दिन जब दोनों ने मिलकर चावल के दाने बाँटे थे, और वह ठंडी रात जब सुदामा ने अपना वस्त्र कृष्ण को ओढ़ाया था।

सुबह जब सुदामा लौटने लगे, कृष्ण ने कुछ भी नहीं कहा — न धन, न वस्त्र, न उपहार।
सुदामा मन ही मन मुस्कुराए — “मेरा कृष्ण वही है। उसने मुझे केवल प्रेम दिया, वही सबसे बड़ा वरदान है।”

रास्ते भर सुदामा सोचते रहे —
“पत्नी क्या कहेगी? मैं तो खाली हाथ लौट रहा हूँ…”

पर जब वे अपनी कुटिया पहुँचे, तो देखकर चकित रह गए —
जहाँ टूटी झोपड़ी थी, वहाँ अब संगमरमर का महल था।
पत्नी रेशमी वस्त्रों में सजी थी, चारों ओर गायें, अन्न और धन का भंडार था।

पत्नी ने आँसुओं से कहा —
“स्वामी, यह चमत्कार कैसे हुआ?”

सुदामा मुस्कुराए —
“यह किसी सोने या रत्न का दान नहीं था, यह था ‘तिल का दान’, जिसमें प्रेम और भक्ति थी।
कृष्ण ने तिल नहीं, मेरे हृदय को स्वीकार किया है।”

---

*इस कथा का सार:*
ईश्वर को *सच्चा प्रेम और निश्छल भाव*।
जिसमें भक्ति है, उसमें सब कुछ है।
सुदामा का तिल का दान यही सिखाता है कि भगवान हृदय देखते हैं, धन नहीं।

जय जय श्री सीताराम 👏
जय जय श्री ठाकुर जी की👏
(जानकारी अच्छी लगे तो अपने इष्ट मित्रों को जन हितार्थ अवश्य प्रेषित करें।)
ज्यो.पं.पवन भारद्वाज(मिश्रा) व्याकरणज्योतिषाचार्य
राज पंडित-श्री राधा गोपाल मंदिर (जयपुर)


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